सोना बनाने की विद्या का रहस्य 2

कीमियागर में लोग सोना बनाने के लिए उपयोग करते थे
पुराने समय का एक कीमियागर
प्रिय दोस्तों हमें बेहद ख़ुशी है की आप सब ने इसकी पिछली कड़ी को खूब सराहा इसके लिए आप सब का धन्यवाद, हमने अपनी पिछली कड़ी में पढ़ा की राजा विक्रमादित्य के राज में एक व्याणी नामक कारीगर रहता है ।जो सोना बनाने के चक्कर में अपना सारा पैसा गवां देता है , लेकिन बाद में सोना बनाने का रसायन बन जाता है ।जिसे वह अपने शरीर पर मल कर वह और उसकी पत्नी हवा में उड़ने लगते हैं और उनके थूकने पर सोना निकलता है।



 अब आगे की कड़ी-

भारतीय रसायन के इतिहास में नागार्जुन का रोल-
      भारतीय रसायन के इतिहास में नागार्जुन एक अत्यंत महत्वपूर्ण नाम है। नागार्जुन के समय में पारे से चांदी और सोना बनाने में भारत का इतिहास उपयोग उल्लेखित था कि पारद का पर्याय हीर शब्द बन गया और लंबे अरसे तक रसायन 'पारद' का ही शास्त्र रहा।

      ताबीज और हेमबीज, जिनकी सहायता से सामान्य पदार्थों से चांदी और सोना बनाया जा सके, भारत ही नहीं, संसार के समस्त देशों में बनाए जाने लगे थे। हेमबीज के नाम पर इस विद्या को 'हेमवती विद्या' भी कहा जाता था।

नागार्जुन की ख्याति-

       नागार्जुन की ख्याति भारत से बाहर तिब्बत और चीन में भी फेल थी कि वह रस विद्या के पंडित थे और सोना बनाने की कला में दक्ष थे। कहा जाता है कि नागार्जुन विदर्भ देश के ब्राह्मण थे। बचपन में ही वह मगध के एक विहार में पहुंचकर बौद्ध भिक्षु हो गए थे । नालंदा में एक बार घोर दुर्भिक्ष पढ़ा।बौद्धों का जीवन संकट में पड़ गया।अतः धन धनार्जन के लिए तमाम बौद्ध चारों और निकल पड़े ।इस प्रयास में किसी तपस्वी ने नागार्जुन को रसायन विद्या सिखाई और तमाम धातुओं से सोना बनाना भी ।अतः जब इस विद्या को सीखकर नागार्जुन नालंदा पहुंचे, तब बौद्धों का अर्थसंकट समाप्त हो गया और बाद में नागार्जुन नालंदा के मुख्य अदिष्ठाता नियुक्त हुए।

       तिब्बत में ऐसे अनेक ग्रंथ पाए गए हैं, जिनमें रसायन के विभिन्न प्रयोग किए गए हैं पर इनमें सबसे अधिक महत्व का ग्रंथ बौद्ध तंत्र है, जिसके लेखक नागार्जुन माने जाते हैं। महायान संप्रदाय के इस तंत्र का नाम 'रस रत्नाकर' है। 'रस रत्नाकर' में नागार्जुन को एक महान सिद्ध बताया गया है।
इस ग्रंथ में रसायन विद्या के विषयों का प्रतिपादन संवाद रूप में है। संवाद रत्नघोष, नागार्जुन वटयक्षिणी, शालीवाहन और मांडव्य के बीच में चलता है।

एक संवाद इस प्रकार है:-

           रतनघोष हाथ जोड़कर नागार्जुन के समक्ष उपस्थित हैं और रस कर्म संबंधी विद्या का याचक है। नागार्जुन उस पर खुश होकर उसे वचन देते हैं, "जो तुम पूछोगे उसका उत्तर दूंगा। उन सब औषधियों को बताऊंगा जिनसे चहरे की झुर्रियां दूर हो,बाल सफेद न पड़ें। और बुढ़ापा ना आए।"

नागार्जुन राज को खोलते हैं:-

            " जीवित प्राणियों के हित के लिए मैंने 12 वर्ष महक्लेश सहते हुए साधना की। वटयक्षिणी की सेवा की, तब मैंने दिव्य वाणी सुनी उस वाणी ने मुझ पर प्रसन्न होकर कहा, "महासिद्ध! साधु! जो कुछ तुमने प्रार्थना की है वह सब मैं तुम्हें दूंगी।"

 इसके उत्तर में नागार्जुन याचिका करते हैं:-

            "हे देवी ! यदि आप मुझ पर खुस हैं तो मुझे रसबंध (पारा बंधना) की विधि बताइए जो तीनो लोकों में दुर्लभ है।"

 आगे एक संवाद में शालीवाहन कहता है:-

              "हे देवी! मैंने सोना और हीरा,ये सब निछावर किए। अब मुझे आदेश दो।

इस पर देवी ने कहा:-

               साधु! साधु! मैं तुझे वह विद्या बताऊंगी जिनको मांडव्य ने सिद्ध किया है। ऐसे ऐसे योग बताऊंगी जिनसे सिद्ध किए हुए पारे द्वारा साधारण तांबा और शीशा आदि धातुयें में सब सोना बन जाती हैं।


                               इन्हें भी जरूर पढ़ें।


सोना बनाने की विद्या का रहस्य 1

सोना बनाने की विद्या का रहस्य 3

चीखने वाली खोपड़ी

शव पेटियों का रहस्य

बग़ीचे में परियाँ

           रतनघोष ने कोटिवेद महारस तैयार किया, जिसका एक करोड़वां भाग सामान्य धातु को सोने में परिवर्तित कर सकता था। साथ ही शरीर को जरा-मृत्यु की बाधाओं से मुक्त भी दिलाने में समर्थ था। उक्त महारस के शोधन की कुछ विद्या दी गई है, जैसे राजावर्त शोधन, गंधक शोधन, रशक शोधन और दर्द शोधन आदि।

               रस विद्या व तंत्र विद्या दोनों में साथ-साथ दो धाराएं चल रही थीं। एक ओर सिद्ध तांत्रिक रोग मुक्ति और मृत्यु के भय से अमर काया कि प्राप्ति के लिए धातु शोधन करते थे तो दूसरी ओर सोना बनाने का प्रयास भी करते थे। रस विद्या के अचार्य भी यही दोनों क्रियाएं करते थे।

           दरअसल इस तरह सोना तो कभी बन नहीं पाया। हां, कीमियागर लोगों को ठगने के लिए सोना बनाने का प्रदर्शन अवश्य करते रहते थे। कुछ कीमियागर सोना बनाने के नाम पर ठगी भी करते थे।

            ठग कीमियागर किसी शहर में प्रवेश करता और सोना बनाने की कला सिखाने का ढिंढोरा पीकर अच्छी खासी भीड़ इकट्टी करता। फिर वह भट्टी गर्म करता। एक बर्तन में थोड़ा पारा डालकर उसमें एक 'गुप्त चूर्ण' डालता था। जैसे ही वतन गर्म होता, कीमियागर शीशे की एक क्षड से पारा और उस 'गुप्त चूर्ण' के मिश्रण को हिलाता था। पारा भाप बनकर उड़ जाता और बर्तन में सोना बच रहता था।

           धनी दर्शक इस दृश्य से प्रभावित और रोमांचित उठते। तब कीमियागर का 'गुप्त चूर्ण' ऊँची कीमतों में बिकता और लोभी लोग खुशी-खुशी सोना बनाने की अदम्य इच्छा और उत्साह लिए घर लौटते पर उनसे सोना बन नहीं पाता था। जब तक वह कीमियागर तक लौट पाते, तब तक वह ना जाने कहां चंपत हो चुका होता था।

                 दोस्तों हमें आशा है की आप को यह पोस्ट भी काफ़ी पसंद आई होगी।इसके आगे की पोस्ट में जानेगे की,आखिर कीमियागर प्रदर्शन के दौरान सोना कैसे बनाते थे।और लावेल कौन था और उसने सोना तो बनाया पर न जाने कौन कौन सी विद्या,जड़ी बूटियां और शैतान की पूजा की ? इसलिए हमारे साथ बने रहिए और हमारी पोस्ट को Facebook,Twitter,Linkedin,Pinterest आदि सोशल नेटवर्किंग साइट पर जरुर शेयर करें और कमेंट में हमें अपने विचार जरुर दें कि आपको यह पोस्ट कैसी लगी।मिलते हैं इसकी डरावनी, रोमांचक ,रहस्यमय अगली और अंतिम(आखरी) कड़ी में।
                           धन्यवाद।


       

Labels: